बर्फ के पहिए
क्या आपने कभी फ़र्ज़ किया है कि एक ठंड की शाम आप अपने पूर्णतया आरामदायक कमरे में ठंड के मज़े ले रहे हो और बस चंद घण्टो बाद ही अपनी घुमक्कड़ जिज्ञासा की नादानी की वजह से बर्फीले तुफानो में जीवन मे संघर्ष कर रहे हो, जी हाँ कुछ ऐसी ही थी मेरी ये यात्रा। जो कुछ समय के लिए तो यातना सी भी प्रतीत हो रही थी। यह बात है ३ जनवरी २०२० की शाम की। हम हिमांचल प्रदेश के मंडी शहर में स्थित आई. आई. टी. में शिक्षा रत है। मैं अपने होस्टल के कमरे में आराम से लेटे हुए मोबाइल में गेम खेल रहा था कि मेरे दरवाजे पे दस्तक होती है, मैं देखता हूं मेरा एक सहपाठी दरवाजे पर खड़ा है- “दोस्त कल पराशर चले”। मैं कुछ भौचका रह जाता हूं क्योंकि वह मेरा कोई मित्र नही है और इससे पहले कभी हम साथ घूमने भी नही गए है, पर मेरे घुमक्कड़ स्वभाव की वजह से मैं कहता हूँ- “बिल्कुल चलो कल निकलते है तैयारी कर लो”। वह चेहरे पे मुस्कान लिए जाने लगता है कि दरवाजे पर ठहर जाता है, “निकलते है मतलब” मैं अपने कनपुरिया अंदाज में उत्तर देता हूँ- एम्मा यार निकलते है, फिर देखो जहाँ तक पहुँच जाए।
मेरे अनिश्चित होने का कारण यह था कि हमने तय किया था कि हम ये यात्रा साइकिल पर करेंगे।मुझे अभी पहाड़ो पर साईकल चलाने का अनुभव नया नया ही था और मेरे इस सहपाठी का मुझसे भी कम। इससे पहले मैंने साईकल पर छोटी छोटी यात्राएं ही कि थी10–12 किलोमीटर लम्बी और 400–500 मीटर ऊंचाइयों वाली जिनपे चढ़ाइयाँ -भी सामान्य ही थी यद्यपि मुझे वो यात्राएं ही बहुत थका देने वाली लगती थी। पराशर हमारे यहाँ से लगभग 40 किलोमीटर की दूरी और यहां की तुलना में 1700 मीटर की ऊँचाई पर स्थित एक बेहद खूबसूरत झील है। हमने सुन रखा था कि सर्दियों में झील जम जाती है, और इसपर एक टापू भी है जो झील में स्थिर नही रहता अपना स्थान बदलता रहता है। हम इससे पहले कभी पराशर नही गए थे हम आने वाली सभी चुनोतियो से पूर्णतया अनभिज्ञ थे, परंतु मेरे मेरे सहपाठी में ऊर्जा और उसका आत्मविश्वास कुछ उतना ही विशाल था जितना हमारे होस्टल से दिखता ग्रिफ्फिन पहाड़।
ग्रहण का उर्जायमान सूर्य
वह हिन्दू धर्म मे एक मान्यता है ना कि जब भगवान सूर्य को ग्रहण लगता है तो वह कष्ट में होते है पर साथ ही उस समय उनका तेज दोगुना बढ़ जाता है। तो अब अगली सुबह 6 बजे मेरे सहपाठी फिर मेरे कमरे के बाहर खड़े मिलते है इस बार उनके मुख पर कुछ ग्रहण वाले सूरज का कष्ट देखा जा सकता है वह बाहर छत की ओर संकेत करते हुए कहता है- “भाई बारिश हो रही है”। मै कुछ बोल पाता ,उससे पहले ही वो कहता है पर हम फिर भी जाएंगे। वो मान्यता है ना कि ग्रहण में सूरज का तेज दोगुना हो जाता है ये उसकी इक्छाशक्ति में दिख रहा था।तैयारी तो हम उत्तेजना के कारण कल शाम को ही कर चुके थे। खाद्य सामग्री , आवश्यक वस्त्र, कुछ दवाए और ट्रैकिंग व साइकिलिंग से संबंधित सुरक्षा उपकरण। पर इसके साथ ही इसका भी ध्यान रखना था कि बैग का वजन ज्यादा न बड़े और साथ ही कोई आवश्यक वस्तु भी न छुटे, वो हम पढ़ते है ना ऑप्टिमाइजेशन। हमारी यात्रा की योजना सुनकर सब हमारा उपहास कर रहे थे और इससे हमारी इक्छाशक्ति प्रबल हो रही थी।हम तैयार हो कर मेस की और बढ़े और वहां से नाश्ता बैग में रख के बस वही से निकलने की योजना बनाई। नाश्ता न करने के पीछे मेरा पुराना अनुभव था कि नाश्ता करने के बाद साईकल चलाना कुछ मुश्किल सा हो जाता है।मेस पहुचने पर हम लोगो को हेलमेट पहने देख मेंस वाले भैया भी पूछ बैठे-”कहा कि तैयारी है सर्”। हम दोनों ने एक आवाज में उत्तर दिया- बस निकल रहे है, जहाँ तक पहुँच जाए और एक दूसरे की तरफ देख के हस दिए।
पैर और पैडल
जी हाँ ये सफर तब तक ही है, जब तक इन दोनों का तालमेल है। इसके बाद तो भैया बस वापस ही लुढ़क लो।
अब सुबह के 8:15 बज चुके थे, और हमारी यात्रा अब शुरू हुई। पराशर का रास्ता सलगी, नार्थ कैंपस, कटौला, संदोहा, बाघी व हलगढ़ इत्यादि गाँवो से होकर जाता है, और उस समय की स्थिति ये थी कि हमारे लिए तो बिना रुके नार्थ कैंपस जो कि महज 3.5 किलोमीटर है तक पहुचना भी साँस फुला देने वाला होता है, परंतु मेरे साथ तो एक बेकरार आशिक़ था। जिसकी माशूका थी पराशर की घाटिया, हाँ में अपने सहयात्री की ही बात कर रहा हुँ। और उस पर आलम भी कुछ ऐसा की मानो माशूका घर पर अकेले हो, तो भैया इनके पैर और पैडल का तालमेल तो नही टूट रहा था और उन्हें देखकर मजबूरी में मेरा।
राह और राहगीर
राह जो सुन्दर थी वो निसंदेह अपने राहगीरों की वजह से ही थी। उहल नदी दाई तरफ हमारी दिशा के विपरीत बह रही थी,और हमारे सहयात्री को देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मानो ये जो विपरीत बहता जल है। ये माशूका के घरवाले ही है, जो उससे दूर जा रहे है,जिससे हमारे सहयात्री की उत्तेजना और बढ़ती जा रही थी। खैर इसके अलावा हमारे कुछ और भी राहगीर थे चह चहाते हुए पंछी जिनकी आवाज ऐसी प्रतीत हो रही थी मानो कोई कानो में गीत गा रहा हो तो वही दोनों तरफ ऊँचे-ऊँचे हरे भरे स्तब्ध पर्वत ऐसे प्रतीत हो रहे थे जैसे अपनी जगह खड़े हो कर बस गर्दन घुमाते हुए हमें घूरे जा रहे हो, इन ठंड के दिनों में जब सूरज की किरणें पहाड़ो के वृक्षो से होते हुए झिलमिल हम पर पड़ रही थी तो ऐसा लग रहा था मानो किसी ने कमरे में झरोखा खोल दिया हो। अब घड़ी पर 9:20 लग चुका और हम कटौला ग्राम पहुच चुके थे।यह ग्राम टिहरी, थाह, अरनेहर और खन्नाह के पहाड़ो से घिरी एक छोटी सी घाटी में बसा है।हम यहां चाय नाश्ते के लिए कुछ देर रुके और ज्यो ही आगे बढ़े तो राह में चुनोतियो का आगमन हो गया। मेरी साईकल की गेयर सिस्टम में खराबी आ गयी, पर जैसा हमने कहा ये राह इन राहगीरों की वजह से ही खूबसूरत है, वहाँ के कुछ गाँव वालों ने हमारी साईकल सुधारने में निस्वार्थ मदद की।अब हम कुछ ही देर में संदोहा पहुँच चुके थे, और यहां से पहाड़ो पर बर्फ दिखना शुरू हो गयी थी। यहाँ पर मुझे एक छोटा सा ब्रेक लेना था। ब्रेक लेने का कारण बर्फीले पहाड़ो का आनंद लेना नही था। अपितु यहां इसी गांव में सड़क से लगे एक मकान में मेरे 2 मित्र रहते है अर्जुन(5) और नेहा(4)। हम अक्सर जब यहां साइकिलिंग करने आते है तो इनकी मीठी मीठी बातो से सारी थकान मिट सी जाती है, तो बस इस बार भी वही हुआ , इनसे बाते करने के बाद हम फिर से एक दम तरो ताजा महसूस करने लगे और सफर में आगे बढ़ चले। पर अभी तो बस ये शुरुआत थी इस रोमांचक सफर की।
ग्लूकोस का घोल
संदोहा पार करने के बाद अब रास्ता दो भागों में बट जाता है। बाई ओर सड़क टिहरी, रहला होते हुए कांडी पर्वत की ओर जाती है , और दाई ओर की सड़क जाती है हमारी मंजिल पर। हम यहाँ तक पहुँच के बहुत खुश थे क्योंकि अब रास्ता एक दम आसान सा दिख रहा था, पर वो कहते है न कि जब जिंदगी डंडा करना बंद कर दे तो समझ लो अब बांस लेने गयी है। अब रास्तो की ढलान अच्छी खासी बढ़ गयी थी।कुछ देर चलने के बाद हम दोनो थक कर ,अब वही सड़क किनारे जमीन पर लेट गए थे। घड़ी का कांटा 10:30 बजा चुका था, और रास्ते की मुश्किल हमारे 12। अब न तो नदी की कल कल अच्छी लग रही थी और न ही पंछियो की चह चहाहट। तब उस समय फरिश्ते की तरह मेरे साथी ने अपने झोले से निकला अमृत(ग्लूकोस का घोल)।
साईकल की नाव
कुछ देर आराम करने व खाने पीने के बाद हमने तय किया कि अब हम बागी जो यहाँ से कुछ 5 किलोमीटर दूर था तक बिना रुके जाएंगे। बढ़ती ढलान के चलते अब हम कैंपस की तुलना मे लगभग 500 मीटर की ऊँचाई पर आ गए थे। ठंड अब इतनी बढ़ गयी थी कि कच्ची सड़को के कीचड़ का पानी एक सफेद काँच की तरह जम गया था जिसपर कई बार साइकिल का संतुलन भी बिगड़ा, पर हम गिरते संभलते अब बाघी पहुँच गए थे। यहां से कुछ आगे चलते ही क्या देखते है कि उहल ने हमारा रास्ता रोक रखा है, पुल अंडर कंस्ट्रक्शन है। मोटर व्हीकल भी पानी की गहराई ज्यादा होने की वजह से फसते फसाते जा रहे है। अलबत्ता नदी का बहाव यहां कुछ न के बराबर ही था। अब चुनोती ये थी कि अगर पैदल इस रास्ते को पार करते है तो कपड़े और जूते पूरी तरह भीग जाएंगे , जिससे ठंड में आगे का सफर मुश्किल हो जाएगा, और अगर साईकल चला कर पार किया तो गिरने के आसार है,पर अगर सफल हुए तो आगे का रास्ता कुछ आसान हो जाएगा। फिर क्या था बना की साइकल की नाव, अमा यार लोगो को बहादुरी के जुमले भी तो सुनाने थे।
चुनेटि लाल की चुनोतियाँ
घड़ी के दोनों हाथ अब उत्तर की और हाथ जोड़े खड़े थे।थकान भी अपनी चरम सीमा पर थी। टांगे मानो कह रही हो मेरे ही भाग्य फूटे थे जो मैं इनके साथ आ गयी लेकिन आत्मशक्ति ने जैसे संदीप माहेश्वरी जी को ज्यादा सुन लिया हो वो अलग ही उत्साहित थी। वहां से गुजरते दो बाइक चालको से हम चॉक्लेट खाते खाते मार्मिक आवाज में पूछ बैठे- “भैया पराशर यहां से कितनी दूर है”।हमारी तरफ हँसते हुए देखकर दोनों कुछ एक राग में तंज की ध्वनि में बोले-”15 किलोमीटर लेकिन पहुँच नही पाओगे”। ये बात हमारे माहेश्वरी जी के फैन को बिल्कुल हिट कर गयी।
फिर क्या था हमने बची हुई चॉक्लेट बैग में रखी और साईकल उठा के पूरे जोश के साथ चल दिए, अरे कुछ दूर लगभग 20 कदम फिर हमने एक दूसरे की तरफ देखा और अच्छे सहचालक के भांति एक दूसरे की भावना समझी और वही बैठ गए, फिर बैग से बची हुई चॉक्लेट निकाल के खाने लगे। उतने में मेरा सहयात्री मेरी तरफ देखकर हसकर बोला- लाइफ इस टफ ब्रो, डोंट वरी अब हम साईकल थोड़ी देर पैदल ही लेकर चलेंगे।ऐसा प्रतीत हुआ जैसे उसने मेरे मन की बात पढ़ ली हो।
कछुआ और खरगोश
1 बज चुके थे और मंजिल से दूरी 10 किलोमीटर।हमारी चाल अब इतनी तेज थी कि बोझा लिए हुए पैदल जाती माताए भी हमसे आगे निकल जा रही थी। हमने अपनी चाल की तेजी के सारे कीर्तिमान तोड़ते हुए 1.2 किलोमीटर की दूरी महज 1 घण्टे में ही तय कर ली और पहुँच गए “कैफ़े वन लव”। हमने तय किया कि अब यहाँ भोजन करके आगे बढ़ेंगे। यहां से आगे रास्ते पूरी तरह से बर्फ से ढक गए थे। भोजन बनाने वाले चाचा से बातचीत के बीच वो बोले-” सर् जी वैसे आप लोग कहा से साईकल चलाते हुए आ रहे है”। खा पी के अब रंगबाजी तो चढ़ ही गयी थी और हमरे यहाँ कानपुर में एक कहावत है- “पेट मे पड़ा अन्न तो सूजा हरामीपन”। हम रंगबाजी से बोले- “अर्रे चाचा बस पास में ही बस आई. आई. टी. कमांड से”। चाचा- “अर्रे वाह बड़ा मुश्किल रहा होगा”। अब तो रंगबाजी आसमान चूमने लगी थी। हम बोले- “अर्रे कहा मुश्किल चाचा आसान ही है”। चाचा बोले- “काफी ऊपर है पराशर कमांड से इतनी चढ़ाई चढ़ जाती है, अच्छा गेयर वाली साईकल है ना”। “अरे चाचा साईकल से कुछ नही होता खुद में दम होना चाइए”- हम बोले। तब ही पास में खड़ा एक कतई हरामी लौंडा तंज मारते हुए ऐसा बोला कि हम रंगबाजी के आसमान से अब सीधे जिल्लत के पाताल में जा गिरे- “तो सर् जी फिर काहे पैदल साईकल खिंचे चले आ रहे थे,हम नीचे देखे थे आपको कछुआ लग रहे थे पैदल जाते लोग भी खरगोश लग रहे थे आपके सामने”।
पंजाबी परेशानी और तेंदुआ
अब हम पराशर से सिर्फ 8.5 किलोमीटर दूर थे,सड़क पर ताजा बर्फ रुई की तरह पड़ी हुई थी।पहिये और बर्फ के मिलन से जो ध्वनि उत्पन्न हो रही थी वो कलेजे को ठंडक पहुँचा रही थी। पहिए भी अब पूरा बर्फ के ही रंग में रंग गए थे।पूरी तरह से बर्फ से ही लिप्त हो गए थे। मानो ऐसे प्रतीत हो रहे थे कि बर्फ के पहिए हो। हमने तय किया कि आगे की यात्रा हम साईकल चला कर ही पूरी करेंगे। पर बर्फ से सने पहिए, उनपर अधिक बर्फ की वजह से जाम हो गए थे। हमारे दोनों तरफ लम्बे-लम्बे बर्फ से लदे देवदार के वृक्ष इतने घने थे मानो उन्होंने एक दूसरे से मिलते हुए बर्फ की एक आभासी छत सी बना दी हो। बर्फ पर पड़ती थोड़ी बहुत सूरज की रोशनी चारो तरफ कुछ ऐसा चका चौंध माहौल बना दे रही थी जैसे किसी ने कमरे में बहुत सी सफेद लाइट्स चालू कर दी हो। हिमपात इतना अधिक हो रहा था कि हम दोनों स्नो मैन बन चुके थे। अभी हम इस मनमोहक माहौल में कुछ मगन हुए ही थे, की हमारा सहयात्री बोल उठा-”भाई तेंदुआ”। हिमपात कि वजह से मेरे चश्मे से कुछ दिखाई नही दे रहा था मै बोला- अबे भग कुत्ता है, पर ज्यो ही मैने अपना चश्मा साफ किया तो हम दोनों ही अब स्तब्ध खड़े रह गए।हम उसे और वो हमें बस देखे ही जा रहा था। सूंदर इतना- कि बीच मे भय खत्म होकर बस उसे एक टक निहारने को हो जी किया। मौसम खराब होने की वजह से हमे अभी तक कोई ट्रैक पर मिला नही था। हमारी स्थिति गंभीर तो थी ही कि पीछे से एक शोर हमारी तरफ धीरे धीरे आगे बढ़ रहा था। शायद इसे सुन के ही वो चला गया, या जो भी कारण था, पर हमारे लिए तो ये शोर जैसे मानो फरिश्ता ही था- ये था कुछ 7–8 नौजवान पंजाबियों का गुट या यूं कहें कि परेशानियों का गुट। यह लोग अलग ही मस्त मौला थे ये नाचते गाते ,खाते-पीते और खाली पैकेट वही फेकते हुए बर्फ के मज़े लेते और वादियों को दूषित करते चले जा रहे थे। उधर से गुजरते कुछ राहगीरों ने इन्हें गन्दगी फैलाने से टोका तो ये उनका ही उपहास करने लगे।हमे भी क्या पता था कि इस साथ का भुगतान हमे आगे करना पड़ेगा।अब हम भी मजबूरी में इनके ही साथ हो लिए थे क्योंकि सफर लम्बा था और जंगल घने।
त्रुटि और तूफान
अब घड़ी ने हमारे न चाहते हुए भी 5 बजा दिए थे। अब हम पहुँच चुके थे,टील पराशर से कुछ 6 किलोमीटर पहले जहाँ कुछ छोटे मोटे ढाबे और रुकने की जगह है। । यहाँ हमने लकड़ी की आग में हाथ पैर सेके, कुछ नए दोस्त बनाए, आसमान में तप्त लोहे की तरह पिघलते सूरज के अस्त होने के बेहद खूबसूरत नजारे का आनंद लिया। मैने तो तय कर लिया था। बस आज शाम यही रुकेंगे और सुबह जल्दी उठके ट्रैक पर निकल जाएंगे। पर आपको तो पता ही है, मेरे साथ एक बेकरार आशिक़ है, और अब वो इतना नजदीक आ कर पूरी एक शाम का इंतज़ार करले अपनी महबूबा से मिलने के लिए मुश्किल था। तो उसके बहुत जिद्द करने पर मै रात में ट्रैक के लिए मान गया । मैंने उन्ही पंजाबी गुट के साथ भोजन किया पर अपनी बेकरारी के चलते मेरे बहुत कहने पर भी मेरे सहयात्री ने भोजन नहीं किया और यहाँ हो गयी त्रुटि आपको बता दु- “बर्फ में खाली पेट ठण्ड ज्यादा लगती है”। अब हम कुछ 6 बजे के लगभग ट्रैक के लिए निकले, हमने साईकले वही ढाबे पर ही छोड़ दी। हमारे कपड़े जूते सब बर्फ से भीग चुके थे जूतो में बर्फ घुसती जा रही थी। पर वो रात भी क्या रात थी।आपने “ प्रकाश का परावर्तन(reflection)” तो सुना ही होगा।रात्रि के अंधेरे में जब चांदनी बर्फ पर पड़ती थी तो वो परावर्तित हो कर चारो ओर अलग ही, भोर वाली सुबह के सामान रौशनी कर देती थी। वहाँ बर्फ इतनी अधिक थी कि हमारे पैर बर्फ में धसे जा रहे थे, और कुछ आगे बढ़ने पर हम क्या पाते है। हवा के साथ मिल के बर्फ जो वातावरण में उड़ रही है, बहुत ही भयानक लग रही है। ये थे बर्फ के तूफान।
प्राण और पी डब्लू डी
हमने जैसे तैसे तूफ़ान पार किया तब रात्रि के 9 बज चुके है । भूखे पेट होने के कारण मेरे सहयात्री की हालत कुछ गम्भीर सी हो गयी है। ठंड उसके पैरों से इतनी अधिक घुस चुकी है कि वह अब अपना होश कुछ खो चुका है, और बस यही बोला जा रहा है- “भाई मैं अब नही चल सकता मेरे पैर महसूस नही हो रहे है , भाई मुझे ऐसे पैरालिसिस हो जाएगा”। पराशर का रेस्ट हाउस अब हमें दिखना शुरू हो गया था, कुछ 800 मीटर बचा होगा। इतनी थकान और भारी बर्फ पर ये 800 मीटर भी 8 किलोमीटर जैसा प्रतीत हो रहा था, हम फारेस्ट हाउस पहुँचे। अब तक मेरे सहयात्री की हालत बहुत गंभीर हो चुकी थी। उसे पैर सेकने की बहुत अधिक आवश्यकता थी। तब ही हमे मिलता है एक झटका- “भाईसाहब अंदर मत आइए यहां कोई रूम नही खाली है”। क्या देखते है ये तो वही आदमी है जिसका इन लोगो ने नीचे मजाक उड़ाया था गंदगी फैलाने से रोकने पर। पहाड़ियों को वादियां गन्दी करने वालो से बहुत चिढ़ होती है , और ये हमे उस दिन पता चल गया। मेरे लाख विनती करने पर भी की हम इनके साथ नही है ये अलग है हम आई. आई. टी. से आए है। उसने हमारी एक न सुनी। गेंहू के साथ अब घुन भी पीस गया था, और मेरे सहयात्री की हालत खराब होती जा रही थी। अतः मुझे अपने कनपुरिया रूप में आना ही पड़ा- “कौन है यहां पर केअर टेकर बुलाओ साले को अभी डी. एम. साहब को फ़ोन लगाता हूँ, उचित कार्यवाही करवा के सबको टाइट करवाऊंगा” मैं गुस्से में ऊँची आवाज में बोला। अब एक लड़का मेरी तरफ आया और डरे हुए स्वर में बोला बोला- “सर् सच मे कोई कमरा खाली नही है, चाहे तो आप खुद चेक कर लीजिए।आप चाहे तो आंगन में बैठ सकते है। मै अभी इनके लिए पानी गर्म करके लाता हूँ, ये पैर सेक ले तो कुछ अच्छा लगेगा”। मैं भी अब नर्म हो गया क्योंकि मुझे गुस्सा बस अपने सहयात्री के कष्ट की वजह से ही था और अब वह उस चीज़ के लिए कॉपरेट करने को तैयार थे। थोड़ी देर बाद उस पंजाबी गुट से एक लड़का आता है और बोलता है-”चलो वीरो पी डब्लू डी रेस्ट हॉउस में बात हो गयी है वहाँ तीन कमरे खाली है”। मैंने अपने सहयात्री की तरफ देखा और जोश भरी आवाज बोला- पी डब्लू डी प्राणदाता।
कहानी आगे और भी है पर फ़िलहाल के लिए यहाँ रुक जाते है।
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Picture Courtesy & Content Writer: Abhishek Singh Kulhadiya
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